जन्म से मृत्यु तक जरुरी हैं ये संस्कार
सनातन धर्म सबसे प्राचीन धर्म है। सनातन धर्म के लिए हमारे ऋषि-मुनि और महात्माओं नें तप और शोध किए। सनातन में जीवन को धर्म के साथ जोड़ने के लिए इंसान के पैदा होने से पहले से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार बताए गए हैं। इन 16 संस्कारों के बारे में कई बार चर्चा की जाती है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अधिकांश लोग अब इनके बारे में नहीं जानते। हिन्दू धर्म को मानने वाले इनमें से सिर्फ कुछ ही संस्कारों का पालन कर पा रहे हैं।Rajesh Mishra, Baba Somnath |
गर्भाधान: विवाह के बाद गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर पहले कर्तव्य के रुप में इस संस्कार को स्थान दिया गया है। उत्तम संतान कि प्राप्ति और गर्भाधान से पहले तन-मन को पवित्र और शुद्ध करने के लिए यह संस्कार करना आवश्यक है।
पुंसवन: पुंसवन गर्भाधान के तीसरे माह के दौरान होता है। इस समय गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। इस संस्कार के जरिए गर्भस्थ शिशु में संस्कारों की नीव रखी जाती है।
सीमन्तोन्नयन: इस संस्कार को सीमंत संस्कार भी कहा जाता है। इसका अर्थ होता है सौभाग्य सम्पन्न होना। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य गर्भपात रोकने के साथ साथ शिशु के माता-पिता के जीवन की मंगल कामना की जाती है।
जातकर्म: संसार में आने वाले शिशु को बुद्धि,स्वास्थ्य और लंबी उम्र की कामना करते हुए सोने के किसी आभूषण या टुकड़े से गुरुमन्त्र के उच्चारण के साथ शहद चटाया जाता है। इसके बाद मां बच्चे को स्तनपान कराती है।
नामकरण: जन्म के 11 वें दिन शिशु का नामकरण संस्कार रखा जाता है। इसमें ब्राह्मण द्वारा हवन प्रक्रिया करके जन्म समय और नक्षत्रो के हिसाब से कुछ अक्षर सुझाए जाते हैं जिनके आधार पर शिशु का नाम रखा जाता है।
निष्क्रमण: जन्म के चौथे माह में यह संस्कार निभाया जाता है। निष्क्रमण का मतलब होता है बाहर निकालना। इस संस्कार से शिशु के शरीर को सूर्य की गर्मी और चंद्रमा की शीतलता से मुलाकात कराई जाती है ताकि वह आगे जाकर जलवायु के साथ तालमेल बैठा सके।
अन्नप्राशन: जन्म के छह महीने बाद इस संस्कार को निभाया जाता है। जन्म के बाद शिशु मां के दूध पर ही निर्भर रहता है। छह माह बाद उसके शरीर के विकास के लिए अन्य प्रकार के भोज्य पदार्थ दिए जाते हैं।
चूड़ाकर्म: चूड़ाकर्म को मुंडन भी कहा जाता है। संस्कार को करने के बच्चे के पहले, तीसरे और पांचवे वर्ष का समय उचित माना गया है। इस संस्कार में जन्म से सिर पर उगे अपवित्र केशों को काट कर बच्चे को प्रखर बनाया जाता है।
Rajesh Mishra, Sury Darshan |
विद्यारंभ: जब शिशु की आयु हो जाती है तो इसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इस संस्कार से बच्चा अपनी विद्या आरंभ करता है। इसके साथ-साथ माता-पिता औऱ गुरुओं को भी अपना दायित्व निभाने का अवसर मिलता है।
कर्णभेद: कर्णभेद संस्कार का आधार वैज्ञानिक है। बालक के शरीर की व्याधि से रक्षा करना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य होता है। कान हमारे शरीर का मुख्य अंग होते हैं, कर्णभेद से इसकि व्याधियां कम हो जाती है और श्रवण शक्ति मजबूत होती है।
यज्ञोपवीत:यज्ञोपवीत यानी उपनयन संस्कार में जनेऊ पहना जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। यज्ञोपवीत सूत से बना वह पवित्र धागा है जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर और दाईं भुजा के नीचे पहनता है।
वेदारंभ: इस संस्कार के बाद व्यक्ति वेदों का ज्ञान लेने की शुरुआत करता है। इसके अलावा ज्ञान और शिक्षा को अपने अंदर समाहित करना भी इस संस्कार का उद्देश्य है।
केशांत: गुरुकुल में वेद का ज्ञान प्राप्त करने के बाद आचार्यों की उपस्थिति में यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार गृहस्थ जीवन में कदम रखने की शुरुआत माना जाता है।
समावर्तन: केशांत संस्कार के बाद समावर्तन संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से विद्या पूर्ण करके समाज में लौटने का संदेश दिया जाता है।
16 Sanskar |
विवाह:प्राचीन समय से ही स्त्री और पुरुष के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। सही उम्र होने पर दोनों का विवाह करना उचित माना जाता है।
अन्त्येष्टि: इंसान की मृत्यु होने पर उसका अंतिम संस्कार कराया जाना ही अंत्येष्टि कहा जाता है। हिंदू धर्म के अनुसार मृत शरीर का अग्नि से मिलन कराया जाता है।
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